कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
प्रेमचन्द की सभी कहानियाँ इस संकलन के 46 भागों में सम्मिलित की गईं हैं। यह इस श्रंखला का बयालीसवाँ भाग है।
अनुक्रम
1. संपादक मोटेरामजी शास्त्री
2. सगे-लैला (लैला का कुत्ता)
3. सचाई का उपहार
4. सज्जनता का दंड
5. सती-1
6. सती-2
7. सत्याग्रह
1. संपादक मोटेरामजी शास्त्री
पंडित चिंतामणि जब कई महीनों के वाद तीर्थ-यात्रा करके लौटे, तो अपने परम मित्र पं. मोटेरामजी शास्त्री से मिलने चले। इस लंबी यात्रा में उन्हें कितने ही विचित्र अनुभव हुए थे, कितनी ही नई-नई बातें देखीं और सुनी थीं। इन सबों को वह नमक-मिर्च लगाकर पंडित जी से बयान करने के लिए आतुर हो रहे थे। लपके हुए पं. मोटेरामजी के घर पहुँचे और अंदर क़दम रखना चाहते थे कि एक चपरासी ने ललकारा- ''कौन अंदर जा रहा है। बाहर खड़े रहो। अंदर क्या काम है?''
चिंतामणि ने विस्मित होकर पूछा- ''मोटेराम का घर यही है न?''
सिपाही- ''हम यह कुछ नहीं जानते, व्यवस्थापक जी की आज्ञा है कि कोई अंदर न जाने पावे।''
चिंता.- ''व्यवस्थापकजी कौन हैं? है तो यह मोटेराम ही का घर?''
सिपाही- ''यह सब हम कुछ नहीं जानते। व्यवस्थापकजी की यही आज्ञा है!''
चिंता.- ''कुछ मालूम तो हो, व्यवस्थापकजी कौन हैं?''
सिपाही- ''व्यवस्थापकजी हैं और कौन हैं?''
चिंतामणि ने चकित होकर मकान को ऊपर से नीचे तक देखा कि कहीं उनसे कोई भूल तो नहीं हुई, तो उन्हें द्वार के सामने एक बड़ा-सा साइनबोर्ड नज़र आया। उस पर लिखा था 'सोना कार्यालय'। मित्र से मिलने की उत्सुकता में उनकी निगाह पहले उस बोर्ड पर न पड़ी थी। पूछा- ''यह कोई कार्यालय है क्या?''
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